Wednesday, October 2, 2019

CHAPTER 10.1 काम में जुटने की आदत डालें

              काम में जुटने की आदत डालें

       हर क्षेत्र के दिग्गज इस बात पर सहमत हैं: ऊँची पोस्ट के लिए योग्य (व्यक्ति नहीं मिलते। जैसी कहावत है, चोटी पर हमेशा काफ़ी जगह खाली रहती है। एक एक्जीक्यूटिव का कहना था कि बहुत सारे लोगों में तकनीकी काबिलियत तो होती है, परंतु उनमें सफलता के एक मूलभूत तत्व की कमी रहती है। वह तत्व है काम पूरा करना या परिणाम देना। 

        हर बड़े काम में - चाहे वह बिज़नेस चलाना हो, ऊँचे स्तर की सेल्समैनशिप हो, विज्ञान, सेना या सरकार हो - आपको एक ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत पड़ती है जो न सिर्फ सोचता हो, बल्कि काम भी करता हो। जब भी अफ़सर किसी महत्वपूर्ण कर्मचारी को नियुक्त करते हैं तो वे अक्सर इस तरह के सवाल पूछते हैं, “क्या वह यह काम कर पाएगा?" "क्या वह पूरा काम कर सकता है ?” “क्या वह खुद ही काम में जुटा रहेगा या उसे बार-बार याद दिलाना पड़ेगा?" "क्या वह काम पूरा करेगा या सिर्फ बातें ही करता रहेगा?"

    
        इन सारे सवालों का लक्ष्य एक ही है : यह पता लगाना कि क्या वह व्यक्ति कर्मठ है, क्या वह व्यक्ति काम का है।

         उत्कृष्ट विचार ही पर्याप्त नहीं होते। एक साधारण विचार पर भी अगर अमल किया जाए और उसे विकसित किया जाए तो उसके अच्छे परिणाम निकलते हैं। दूसरी तरफ़, अगर आपके पास सर्वश्रेष्ठ विचार भी हो और आप उस पर अमल नहीं कर पाएँ, तो वह बेकार है क्योंकि वह आपके दिमाग में ही पैदा होता है और वहीं मर जाता है।

         महान व्यापारी जॉन वानामेकर अक्सर कहा करते थे, “कोई भी चीज़ सिर्फ़ सोच लेने भर से नहीं हो जाती।"

         इस बारे में विचार करें। इस दुनिया की हर चीज़, उपग्रह और गगनचुंबी इमारतों से लेकर बेबी फूड तक, सिर्फ एक विचार था जिस पर किसी ने मेहनत की है।

         जब आप सफल और असफल दोनों तरह के लोगों का अध्ययन करते हैं, तो आप पाएँगे कि आप उन्हें दो श्रेणियों में बाँट सकते हैं। सफल लोग “कर्मठ" होते हैं। औसत व्यक्ति साधारण होता है, जबकि असफल लोग “निठल्ले" होते हैं।

        हम दोनों समूहों के अध्ययन से सफलता का सिद्धांत खोज सकते हैं। मिस्टर कर्मठ काम करने वाले होते हैं। वे काम शुरू करते हैं, उसे पूरा करते हैं और उनके दिमाग में विचार और योजनाएँ होती हैं। मिस्टर निठल्ले एक “अकर्मण्य" व्यक्ति होते हैं। वे काम को टालते रहते हैं जब तक कि वे यह साबित न कर दें कि वह काम उन्हें क्यों नहीं करना चाहिए, या वह काम वे क्यों नहीं कर सकते, या जब तक काम का वक़्त ही न निकल जाए।

          मिस्टर कर्मठ और मिस्टर निठल्ले के बीच का अंतर अनगिनत चीज़ों में दिखता है। मिस्टर कर्मठ छुट्टियाँ मनाने की योजना बनाते हैं। वे छुट्टियाँ मनाकर आ जाते हैं। मिस्टर निठल्ले छुट्टियाँ मनाने की सोचते हैं। परंतु वे उसे “अगले" साल तक के लिए टाल देते हैं। मिस्टर क. निर्णय लेते हैं कि उन्हें नियमित रूप से चर्च जाना चाहिए। और वह ऐसा करते हैं। मिस्टर नि. सोचते हैं कि चर्च जाना एक अच्छा विचार है, परंतु वे ऐसा करने से किसी न किसी कारण से बचते रहते हैं। मिस्टर क. महसूस करते हैं कि उन्हें किसी की उपलब्धि पर उसे बधाई देनी चाहिए। वे चिट्ठी लिख देते हैं। मिस्टर नि. को चिट्ठी लिखने से बचने का कोई बहाना मिल जाता है और वे चिट्ठी कभी नहीं लिख पाते।

       यह अंतर बड़ी चीजों में भी साफ़ दिखाई देता है। मिस्टर क. अपना खुद का बिज़नेस खड़ा करना चाहते हैं। वे ऐसा कर लेते हैं। मिस्टर नि. भी खुद का बिज़नेस खड़ा करना चाहते हैं, परंतु उन्हें समय रहते ही कोई ऐसा “बेहतरीन" बहाना मिल जाता है जिसके कारण वे कभी ऐसा नहीं कर पाते। मिस्टर क., 40 साल की उम्र में, किसी नए काम में हाथ डालने का फ़ैसला करते हैं। वे ऐसा सफलतापूर्वक कर लेते हैं। यही विचार मिस्टर नि. के मन में आता है, परंतु वे इस बात पर सोचते ही रहते हैं और कभी कुछ कर नहीं पाते।

         इन दोनों व्यक्तियों यानी कि मिस्टर कर्मठ और मिस्टर निठल्ले के बीच का अंतर हर तरह के व्यवहार में भी साफ़ झलकता है। मिस्टर क. जो काम करना चाहते हैं वे उसे करके दिखा देते हैं और इसके फलस्वरूप उन्हें आत्मविश्वास, अंदरूनी सुरक्षा की भावना, आत्मनिर्भरता और ज्यादा आमदनी इत्यादि चीजें मिलती हैं। मिस्टर नि. कभी भी अपना मनचाहा काम नहीं कर पाते, क्योंकि वे काम करना शुरू ही नहीं करते। इसके फलस्वरूप उनका आत्मविश्वास कम होता जाता है, उनकी आत्मनिर्भरता समाप्त हो जाती है और वे औसत दर्जे की ज़िंदगी जीने के लिए विवश रहते हैं।

        मिस्टर कर्मठ कछ करते हैं। मिस्टर निठल्ले “करना तो चाहते हैं, पर कभी कुछ शुरू नहीं कर पाते।”

         हर व्यक्ति कर्मठ बनना चाहता है। इसलिए आइए काम शुरू करने और फिर उसे पूरा करने की आदत डालें।

        बहुत से निठल्ले लोग इस तरह के इसलिए बने क्योंकि वे इस बात का इंतज़ार करते हैं कि परिस्थितियाँ पूरी तरह आदर्श होनी चाहिए और जब तक ऐसा नहीं होता वे वहीं रुके रहते हैं। आदर्श स्थिति या पूर्णता बहुत अच्छी बात है। परंतु यह भी सच है कि कोई भी इंसानी चीज़ पूरी तरह आदर्श या पूर्ण नहीं होती है, न ही हो सकती है। इसलिए अगर आप आदर्श स्थिति का इंतज़ार करेंगे. तो शायद आपको हमेशा इंतज़ार करना पड़ेगा।

        नीचे तीन उदाहरण दिए गए हैं, जिनमें बताया गया है कि तीन लोगों ने अपनी "स्थितियों" का सामना किस तरह किया।

उदाहरण एक : जी. एन. ने शादी क्यों नहीं की

मिस्टर जी. एन. लगभग चालीस साल के उच्च-शिक्षित अकाउंटेंट हैं और शिकागो में रहते हैं। जी. एन. की शादी करने की बड़ी इच्छा है। वे प्रेम,  साहचर्य, घर, बच्चे चाहते हैं। जी. एन. कई बार शादी के बहुत करीब आ गए थे, एक बार तो उनकी शादी को सिर्फ एक दिन बचा था। परंतु हर बार जब भी शादी की तारीख़ करीब आती थी, उन्हें कोई न कोई ऐसा बहाना मिल जाता था जिसके कारण वह उस लड़की से शादी करने से इंकार कर देते थे। ("भगवान का शुक्र है कि में वह गलती करने से बाल-बाल बच गया।")

        इसका एक दिलचस्प उदाहरण यह है। दो साल पहले, जी. एन, ने सोचा कि आखिरकार उसे सही लड़की मिल गई है। वह आकर्षक, खुशमिज़ाज और बुद्धिमान थी। परंतु जी. एन. को यह सुनिश्चित करना था कि इस लड़की के साथ शादी करना पूरी तरह सही होगा। जब वे एक शाम को शादी की योजना पर चर्चा कर रहे थे, तो लड़की ने कुछ ऐसी बातें कहीं, जिनसे जी. एन. को चिंता होने लगी।

        तो, यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह सही लड़की से शादी करने जा रहा है, जी. एन. ने चार पेज का एक एग्रीमेंट लिखा, जिस पर लड़की को शादी से पहले साइन करने थे। इस एग्रीमेंट में कुछ शर्त थीं, और टाइप किया हुआ यह दस्तावेज़ जीवन के हर पहलू के बारे में था। धर्म वाले खंड में कुछ शर्ते थीं : वे कौन से चर्च में जाएँगे, वे कितनी बार चर्च जाएँगे, वे कितना दान देंगे। दूसरे खंड में बच्चों की योजना बनाई गई थी। उनके कितने बच्चे होंगे और कब होंगे।

         पूरे विस्तार से जी. एन. ने यह रूपरेखा बना ली थी कि उनके किस तरह के दोस्त होंगे, उसकी भावी पत्नी किस तरह की नौकरी करेगी, वे लोग कहाँ रहेंगे, किस तरह उनकी आमदनी खर्च की जाएगी। दस्तावेज़ के अंत में, जी. एन. ने आधे पेज में उन आदतों को लिखा जो लड़की को या तो छोड़नी पड़ेंगी या सीखनी पड़ेंगी। इनमें धूम्रपान, शराबखोरी, मेकअप, मनोरंजन इत्यादि थे।

         जब जी. एन. की भावी दुल्हन ने उसका यह अल्टीमेटम देखा तो उसने वही किया जो आप और हम सोच रहे हैं। उसने एक नोट लगाकर इसे वापस भिजवा दिया, “हर एक के लिए सामान्य विवाह की यह शत ही काफ़ी है 'कि अच्छे और बुरे वक्त में हम साथ-साथ रहेंगे और यह मेरे लिए भी पर्याप्त है। अब मुझसे शादी की बात भूल जाएँ।"

          जब जी. एन. मुझे अपना अनुभव सुना रहा था तो उसने चिंतित होकर कहा, 'अब आप बताएं, एग्रीमेंट लिखकर मैंने क्या गलती कर दी? आखिर शादी एक बड़ा फैसला है। आपको यह फैसला बहत सोच-समझकर करना चाहिए।'

         परंतु जी. एन. ग़लत था। आप बहुत ज़्यादा सोच-समझकर चलेंगे, बहत ज्यादा सावधान रहेंगे तो शादी ही क्या, आप दुनिया के हर क्षेत्र में असफल रहेंगे। आपकी अपेक्षाएं आसमान छू रही होंगी। जी. एन. का शादी के बारे में भी वही नज़रिया था जो अपनी नौकरी के बारे में था, अपनी बचत, अपने दोस्तों या किसी और चीज़ के बारे में था।

           समस्याएँ पैदा होने से पहले ही उन्हें पूरी तरह ख़त्म कर देने की योग्यता सफल व्यक्ति में नहीं पाई जाती, परंतु समस्याएँ पैदा होने के बाद उन्हें सुलझाने की योग्यता हर सफल व्यक्ति में पाई जाती है। अगर हम कोई काम शुरू करने से पहले सारी उम्र इंतज़ार नहीं करना चाहते तो बेहतर होगा कि हम पूर्णता के साथ समझदारीपूर्ण समझौता करने के इच्छुक रहें। पुलों को तभी पार करें, जब वे आएँ। यह सलाह काफ़ी समय से दी जा रही है और यह अब भी उतनी ही सही है जितनी कि यह दो सौ साल पहले सही थी।

   उदाहरण दो : जे. एम. नए घर में क्यों रहता है

  हर बड़ा निर्णय लेते समय, मस्तिष्क खुद के साथ युद्ध करता है- काम करें या न करें, करें कि न करें। यहाँ पर ऐसे युवक की कहानी है जिसने काम करने का फैसला किया और इससे उसे बहुत फायदा हुआ।

        जे. एम. की स्थिति भी लाखों-करोड़ों युवकों जैसी है। वह अभी पच्चीस साल का है और उसकी पत्नी और एक बच्चा है और उसकी आमदनी ख़ास नहीं है।

        मिस्टर और मिसेज़ जे. एम. एक छोटे अपार्टमेंट में रहा करते थे। नया घर दोनों का सपना था। वे चाहते थे कि उनके पास ज़्यादा जगह हो, आस-पास का माहौल ज़्यादा अच्छा हो, बच्चों के लिए खेलने का मैदान हो और अपनी खुद की जायदाद हो।

        परंतु नया घर खरीदने में एक बाधा थी- नकद भुगतान। एक दिन जब जे. एम. अगले महीने के मकान किराए का चेक काट रहा था तो उसे बहुत कोफ्त हुई। जितना मकान किराया वह दे रहा था, वह तो नए मकान की क़िस्त के बराबर रकम थी।

        जे. एम. ने अपनी पत्नी से कहा, “क्या तुम अगले हफ्ते नया घर ख़रीदना पसंद करोगी?" पत्नी ने पूछा, “आज तुम्हें हो क्या गया है ? क्यों मज़ाक कर रहे हो? तुम जानते हो हम अभी घर नहीं खरीद सकते। नकद देने के लिए हमारे पास पैसे नहीं हैं ? डाउन-पेमेंट हम कहाँ से देंगे?" ।

         परंतु जे. एम. का इरादा पक्का था। “हमारी तरह के लाखों लोग होंगे जो किसी न किसी दिन नया घर खरीदने के सपने देखते होंगे, परंतु उनमें आधे से ज़्यादा लोग कभी भी अपने सपनों का घर नहीं खरीद पाते। कोई न कोई चीज़ आकर उन्हें रोक देती होगी। हम घर खरीदेंगे। मैं नहीं जानता कि हम डाउन-पेमेंट कहाँ से लाएँगे, परंतु हम किसी न किसी तरह ऐसा कर लेंगे।"

        अगले हफ्ते उन्हें एक ऐसा घर मिल गया जो उन्हें पसंद था। घर छोटा परंतु बढ़िया था, और उन्हें सिर्फ 1200 डॉलर का डाउनपेमेंट देना था। अब समस्या थी 1200 डॉलर इकटठे करना। जे. एम. जानता था कि उसे क़र्ज़ में इतनी बड़ी रकम नहीं मिलेगी।

        परंतु जहाँ चाह, वहाँ राह। अचानक, जे. एम. ने इस समस्या पर काफ़ी सोच-विचार किया। क्यों न बिल्डर से बात की जाए और 1200 डॉलर एकमुश्त देने के बजाय किस्तों में दिया जाए? जे. एम. ने बिल्डर से बात की। पहले तो बिल्डर नहीं माना, परंतु जे. एम. जब जुटा रहा, तो बिल्डर राज़ी हो गया। बिल्डर जे. एम. को 1200 डॉलर का लोन देने के लिए तैयार हो गया। अब जे. एम. को हर महीने 100 डॉलर और। ब्याज का इंतज़ाम करना था।

        पति-पत्नी दोनों ने हिसाब लगाया और हर महीने अपने खर्च में 25 डॉलर की कटौती करने का फैसला किया। परंतु अब भी समस्या यह थी। कि 75 डॉलर कहाँ से आएँगे, जो हर महीने किस्त देने के लिए ज़रूरी होंगे।

       तभी जे. एम. के दिमाग में एक विचार आया। अगली सुबह वह अपने बॉस से मिलने गया। उसने उन्हें बताया कि स्थिति क्या है। बॉस यह जानकर खुश हुए कि जे. एम. घर खरीद रहा है।

        फिर जे. एम. ने कहा, “सर, मुझे इसके लिए हर महीने 75 डॉलर चाहिए। मैं जानता हूँ कि आप मेरी तनख्वाह तभी बढ़ाएँगे जब आप मुझे इस काबिल समझेंगे। मैं अभी तो आपसे सिर्फ पैसा कमाने का अवसर चाहता हूँ। इस ऑफ़िस में ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो मैं सप्ताहांत में आकर कर सकता हूँ। क्या ऐसा संभव है कि इससे मेरी समस्या सुलझ जाएगी?"

        जे. एम. की गंभीरता और महत्वाकांक्षा देखकर बॉस प्रभावित हुए। हर सप्ताहांत में दस घंटे अतिरिक्त काम करने के बदले में वे जे. एम. को इतनी राशि देने के लिए तैयार हो गए और फिर मिस्टर और मिसेज़ जे. एम. अपने नए घर में रहने के लिए चले गए।

1. जे. एम. के मन में काम करने का दृढ़ संकल्प था, जिससे उसे लक्ष्य की प्राप्ति में सहयोग मिला।

2. जे. एम. नए विश्वास से भर गया। इसके बाद अगर उसके सामने कोई बड़ी परिस्थिति आती है, तो उसके लिए कर्मठता दिखाना आसान होगा।

3. जे. एम. ने अपनी पत्नी और अपने बच्चों को उनके सपनों का घर दिलवा दिया। अगर उसने आदर्श स्थितियों का इंतजार किया होता, घर खरीदने को टाला होता, तो हो सकता था कि वे लोग कभी अपने खुद के घर में नहीं रह पाते।

उदाहरण तीन : सी. डी. अपना खुद का बिज़नेस शुरू करना चाहता था, परंतु...

मिस्टर सी. डी. भी इसी तरह का एक उदाहरण है जो हमें बताता है कि अगर कोई काम शुरू करने से पहले आदर्श परिस्थितियों का इंतजार करता है तो उसका परिणाम क्या होता है।

दूसरे विश्वयुद्ध के कुछ ही समय बाद सी. डी. को अमेरिकन पोस्ट ऑफ़िस डिपार्टमेंट के कस्टम्स डिवीज़न में नौकरी मिल गई। उसे काम पसंद था। परंतु पाँच साल बाद वह अपनी नौकरी से उकता गया। वही काम करते-करते वह ऊब गया था, रोज़ काम के बँधे-बँधाए घंटे, कम
तनख्वाह और ऐसा सीनियॉरिटी सिस्टम जिसमें तरक्क़ी की गुंजाइश कम ही थी।

       तभी उसके मन में एक विचार आया। उसे इस बात का काफ़ी ज्ञान हो चुका था कि सफल आयात कैसे किया जा सकता है। क्यों न वह कम क़ीमत के तोहफ़े और खिलौने आयात करने का बिज़नेस शुरू करे? सी. डी. कई सफल आयातकों को जानता था जिनके पास इस बिज़नेस का उसके जितना ज्ञान नहीं था।

      अपना बिज़नेस शुरू करने का विचार उसके मन में दस साल पहले आया था। परंतु आज भी वह कस्टम्स ऑफ़िस में ही काम कर रहा है।

      क्यों? होता यह था कि जब भी सी. डी. शुरू करने वाला होता था, कोई न कोई ऐसी समस्या आ जाती थी जिसके कारण वह आख़िरी कदम नहीं उठा पाता था। पैसे की कमी, आर्थिक मंदी, बच्चे का जन्म, टेम्पररी सुरक्षा की आवश्यकता, व्यापार पर प्रतिबंध, और इसी तरह के कई बहाने इंतज़ार करने और काम टालने के लिए इस्तेमाल किए गए।

       सच्चाई तो यह है कि सी. डी. ने खुद को मिस्टर निठल्ले बन जाने दिया। वह चाहता था कि वह आदर्श परिस्थितियों में ही काम शुरू करे। चूँकि परिस्थितियाँ कभी आदर्श नहीं हुईं, इसलिए सी. डी. का काम कभी शुरू नहीं हो पाया।

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